मान्यताएं व परम्परा का वैशिष्टय स्वरूप है ‘देव दीपावली उत्सव’

जनमुख,न्यूज। निर्णय सिधु एवं स्मृति कौस्तुभी में उल्लेखित ‘देव दीपावली पुरातन काल से पौराणिक मान्यताएं एवं कथाओं पर प्रचलित है। जो कि कोटि मेले में दर्ज वैश्विक उत्सव का स्वरूप आज ले चुका है। ढाई दशक पहले ५ घाटों पर सात कनस्तर तेल से आरम्भ हुआ यह देव दीपावली’ सभी ८४ घाट आदिकेशव से अस्सीघाट तक मनाया जाता है। मान्यता है कि त्रिपुरासुर नामक दैत्य के अत्याचार से तंग देवगण के आग्रह पर भगवान शिव द्वारा दैत्य पर विजय का उत्सव ही देव दीपावली का स्वरूप अख्तियार की। कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवताओं ने अपने सेनापति कार्तिकेय के साथ शंकर की महाआरती और नगर को दीपमालाओं से सुसज्जित कर विजय दिवस मनाया था। हालांकि, पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डा. विभूतिनारायण सिंह की देवदीपावली की पृष्ठभूमि में अहम भूमिका है जिनके द्वारा १९८६ में पंचगंगा घाट पर हजारा दीप जलाई गयी। वैसे, वर्तमान स्वरूप का श्रेय गंगोत्री सेवा समिति के संस्थापक अध्यक्ष पं. किशोरी रमण दूबे (बाबू महाराज) को जाता है, जिन्होंने प्राचीन दशाश्वमेध घाट पर सबसे पहले आरती की शुरूआत सन् १९९१ से की थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार काशी के प्रथम शासक ‘दिवोदास’ द्वारा अपने राज्य बनारस में देवी- देवताओं का प्रवेश बंद कर दिया गया था। छिपेरूप में देवगण कार्तिक मास पंचगंगा घाट पर पवित्र गंगा में स्नान को आते रहे। कालांतर में राजा को प्रभावित कर यह प्रतिबंध हटा लिया गया। इस विजय को कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव की महाआरती व दीपमाला से गंगा को सुसज्जित कर मनायी गयी थी तभी से हर्षोउल्लास का यह पर्व ‘देव दीपावली’ मनायी जाती है।
देव दीपावली की शुरुआत देव दीपावली का उल्लेख निर्णय सिन्धु एवं स्मृति कौस्तुभी में है। काशी में इसकी शुरुआत पुरातन काल से मानी जाती है। हालांकि देव दीपावली के विह्ंगम दृश्य की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डा. विभूति नारायण सिंह की भूमिका अहम है जो १९८६ में पंचगंगा पर हजारा दीप जलाई गयी । काशी की संस्कृति में चार लक्खा मेले में रथयात्रा मेला, नाटी इमली का भरत मिलाप, चेतगंज की नक्कटैया और तुलसी घाट की नागनथैया के बाद अब कोटि मेले के रूप देव दीपावली जुड़ गया। वर्तमान स्वरूप का श्रेय गंगोत्री सेवा समिति ( दशाश्वमेध घाट ) के संस्थापक अध्यक्ष पं. किशोरी रमण दूबे (बाबू महाराज) को जाता है जिन्होंने प्राचीन दशाश्वमेध घाट पर सबसे पहले आरती की शुरुआत सन १९९१ से हुयी थी । उस वक्त की आरती चौकी पर मिट्टी की धुनोची में कपूर रख कर होता था साथ ही ये आरती ख़ास अवसरों पर ही हुआ करती थी । सन १४ नवम्बर १९९७ से नित्य आरती का सिलसिला शुरू हुआ । जो आज भी जारी है।

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